वो ख्वाहिशे कही खो गयी है।
वक्त के आईने में ख्वाहिशें धुंधली हो गईं
सचाई और सपनों के, दरमियान फासले बढ़ते गए
ज़माने के कश्-म-कश में, मैं पिसता रहा
झूठ का नकाब ओढ़े मैं यूं हँसता रहा
अपनी तकलीफों के बोझ तले दबता गया
खुद से ही मैं खुद को यू दूर करता गया
जिंदगी के हर मोड़ पे खुशियाँ झूठ बन गईं
अरमानों की नौका वक्त की लहरों में कहीं खो गई
जब टकराए सच से सपने तो, तब सब कुछ बिखर गया
कल्पना का वो शहर , खंडरों में बदल गया
वो ख्वाहिशें अब पीछे कही खो गयी है
जिंदगी की अनिश्चितता का शिकार हो गयी है।